एक समय की बात है। एक आदमी बहुत परेशान था। उसे लगता था कि ज़िंदगी में सबकुछ उसके खिलाफ है। पैसे की कमी, रिश्तों की उलझन और मन की बेचैनी—सब मिलकर उसे भीतर से तोड़ रहे थे। वह रोज़ मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों में भटकता, लेकिन उसके सवाल का जवाब कहीं नहीं मिलता।
एक दिन वह किसी मित्र की सलाह पर ओशो के प्रवचन में पहुँच गया। सभा में शांति छाई हुई थी, ओशो ने अपनी गहरी और धीमी आवाज़ में कहा—
“तुम लोग अपने दुखों का कारण बाहर ढूँढते हो। सोचते हो कि अमीरी, प्यार या सम्मान मिल जाए तो सुख आ जाएगा। लेकिन असली दुख यह है कि तुम अपने भीतर झाँकते ही नहीं। जो भीतर है, वही तुम्हारी दुनिया है।”
वह आदमी सन्न रह गया। पहली बार किसी ने उसके दिल की बात कह दी थी।
प्रवचन के बाद उसने ओशो से मिलकर पूछा—
“मैं अपने भीतर कैसे देखूँ? वहाँ तो अंधेरा है।”
ओशो मुस्कराए और बोले—
“अंधेरा तो सिर्फ रोशनी की कमी है। जब तुम चुप बैठोगे, बिना भाग-दौड़ के, तो भीतर का दिया खुद जल उठेगा। फिर वही तुम्हें रास्ता दिखाएगा।”
उस रात आदमी ने पहली बार बिना मोबाइल, बिना किताब, बिना किसी दोस्त से बात किए सिर्फ चुपचाप बैठने की कोशिश की। पहले तो बेचैनी हुई, लेकिन धीरे-धीरे उसने महसूस किया कि उसका मन शांत हो रहा है।
दिन बीतते गए। धीरे-धीरे उसे महसूस हुआ कि सुख बाहर की चीज़ों में नहीं, बल्कि उसकी अपनी चेतना में है। अब वह दुनिया को दोष नहीं देता था, न ही रिश्तों से भागता था। उसने सीखा कि जब भीतर शांति हो, तो बाहर का हर शोर भी संगीत लगने लगता है।
यही ओशो का संदेश था—
“सुख बाहर से नहीं, भीतर से जन्म लेता है।”
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